मंगलवार, 15 नवंबर 2011

चिंगारी तो है...!!






"न कॉंग्रेस, ना भाजपा,जो अच्च्छा काम करेगा, साब मैं उसके साथ हूँ| साब मैं  जात से मुसलमान हूँ..पर मैं हिंदू मुस्लिम नही मानता| ऊपर वाले ने बस दो ही जात बनाई है, मर्द और औरत..बांकी ना यहाँ ना कोई साधु, ना कोई मुल्ला| साले सब राजनीति करते हैं| भाय्या भागाओ आंदोलन चलते हैं, अपना पेट पालने के लिए...इन्हे शर्म नहीं आती, बस राजनीति आती है साब|"
ये शब्द हैं, मेरे साथ सफ़र कर रहे एक आम आदमी के| और हम कहते हैं, कि जनता भोली है, बेवकूफ़ है| कहना ग़लत नही होगा की, चिंगारी भी है.. और आशा भी..बस नीयत की दरकार है.........नि:संदेह परिवर्तन दूर नहीं|

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

अंधेरा और सत्य


जिस प्रकार जीवन का एकमात्र सच मृत्यु है, ठीक उसी प्रकार संसार का एकमात्र सत्य, अंधेरा (तम) है| हमने हमेशा यही सुना, यही जाना कि यह दुनिया प्रकाश की है| परंतु, यह तथ्य निराधार है|  प्रकाश के अभाव से अंधेरा होता है, ये सभी जानते हैं; परंतु अंधेरे का अभाव? सोच से भी परे है| प्रकाश को तो फिर भी स्त्रोत की दरकार होती है, पर अंधेरे को? नहीं| माना अंधेरा कमज़ोर होता है और प्रकाश की एक छोटी सी किरण भी अंधेरे को चीरने के लिए पर्याप्त है| फिर भी यह संसार अंधेरे का है, इसमें दो-राय रखना निराधार प्रतीत होता है|
 अंधेरे के इस गुणगान से मेरा यह तत्पर्य बुराइयों का प्रचार करना कदापि नही है, क्यूंकी अंधेरे का मतलब बुराई नहीं, अस्त्य नहीं| प्राचीन काल से ही बुद्धिजीवी अंधेरे को असत्य और बुराइयों का पर्याय मानते आए हैं, परंतु मेरी नज़र मे यह ग़लत और भ्रमित करने वाली बात है| ऐसा इसलिए क्यूंकी मेरी राय में अंधेरा एक सत्य है, शायद प्रकाश से भी बड़ा|

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

एक तमाशबीन लड़की,,,!!




यह वाक़या भी उसी रेल यात्रा  से जुड़ा है , जिसका ज़िक्र मैने अपने पिछ्ले लेख में किया था | कुछ निज़ी काम से मुझे अपनी इस यात्रा को जबलपुर मे अल्प-विराम देना पड़ा| जल्द ही काम निपटा कर मैने घर की राह ली | जो पहली ट्रेन दिखी, उसी को पकड़ लिया | इस बार अनारक्षित श्रेणी का रुख़ किया | चूँकि जबलपुर से सतना का सफ़र महज़ तीन घंटो का था और मुझे इसकी आदत कॉलेज के दिनों से है इसलिए आरक्षण ज़रूरी नही समझा | कभी-कभी ट्रेन के दरवाज़ो पे खड़े होकर सफ़र करने का भी अपना ही आनंद है, जो आरक्षित सीट पर लेटे-लेटे नही आ सकता (यह मेरी व्यक्तिगत सोच है | असल में ट्रेन के दरवाज़े पे खड़े होकर सफ़र करना अत्यंत जोखिम-पूर्ण और गैर-क़ानूनी है| ऐसा करने से बचें!)| ट्रेन मे भीड़ काफ़ी थी, सो बैठने की जगह मिलने का सवाल ही नहीं था | मैने दरवाज़े के सामने खड़ा रहना ही उचित समझा | थोड़ी ही देर मे तेज़ बारिश शुरू हो गई, जिसका पानी दरवाज़ों से होता हुआ अंदर आ रहा था | लोगो के बार-बार कहने पे, मुझे ट्रेन का दरवाज़ा बंद करना पड़ा | 

        अब खड़ा रहना तकलीफ़ दे रहा था | अपना वज़न एक-एक कर दोनो पैरो पे डाल रहा था | एक समय पर एक ही पैर पे वज़न रखने से, दूसरे पैर को आराम मिलता है, और सफ़र सरल होता है | यह तरकीब एक ज़रूरत बन जाती है जब ट्रेन मे बैठने की जगह मिलना तकरीबन असंभव हो | ख़ैर, नज़रे तो डिब्बे का मुआयना करने मे व्यस्त थीं | तकलीफ़ पैरों को थी, दर्द पैरों को था, लेकिन उतनी ही झटपटाहट आँखो मे भी थी | आह! कितना सच्चा और अटूट रिश्ता | प्रार्थना करता हूँ जीवन मे सभी को ऐसा हमसफर मिले, जो उनका दर्द, उनकी भावनायें इसी तरह समझें |
जगह की तलाश मे व्यस्त नज़रें एक जगह जा कर रुकीं, जहाँ लोग कुछ देखने के लिए एकत्रित हो रहे थे | दूर से कुछ ख़ास समझ तो नही आ रहा था, पर लोगों की तालियों और अट्टहास से ऐसा लग रहा था, मानों कोई तमाशबीन लड़की, अपने करतब दिखा रही हो |
           बारिश थम चुकी थी, और मेरा ध्यान फिर से प्रकृति की सुंदरता देखने मे मग्न हो गया | कुछ देर बाद कान मे एक आवाज़ पड़ी, "दस रूपिया में एक कुनटल(quintal) चना लो भाई|" देखा तो यह वही लड़की थी, जिसे थोड़ी देर पहले तक मैं कोई तमाशबीन समझ रहा था | यही कोई दस-ग्यारह वर्ष की उम्र, सर पे बड़ी सी टोकनी, उसमें भीगे हुए चने, हरी मिर्च, प्याज़, टमाटर, नमक, कुछ पुराने अख़बार और प्याज़-टमाटर काटने वाला चाकू | कुछ लोगों ने चने खरीदे भी, लेकिन सिर्फ़ कुछ ही लोगों ने | जब उसे लगा कि और लोग नहीं लेंगे, तो पास बैठे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से बोली," काकू, चना लो ना! अरे, मत देना पैसा और क्या, पर भूखे ना रहो |" अपने तरह तरह के व्यंगों से वो लोगो को मानती रही, या यह कहें कि उन्हें तमाशा बनाने का ख़ौफ़ दिखती रही और चने बेचती रही | किसी ने मन से लिया, किसी ने अपने तमाशा बनने के डर से | उसे अपने ग्राहकों की भी खूब पहचान थी| तभी तो उसने सिर्फ़ बैठे हुए लोगो को ही निशाना बनाया | उस डिब्बे से निकालने को हुई, तो बीच रास्ते मे कुछ ग़रीब बुज़ुर्ग लोग नीचे बैठे थे | उसने उनसे रास्ता देना का आग्रह किया, तो उन्होने ने साफ़ माना कर दिया | लड़की उनके ऊपर पाँव रखते हुए, अपनी राह बनाते हुए, आगे निकल गयी | रही बात मेरी, तो चूँकि मैं अलग खड़ा था, अतः पूरी कहानी में मैंनें मात्र एक मूक दर्शक की भूमिका निभाई |
वह तमाशबीन लड़की कई चीज़ों का उदाहरण है | अलग लोग, अलग नज़रिया | किसी के लिए साहस की प्रतिमूर्ति, जो भारी ट्रेन मे अकेले चने बेचती है, घर चलाने क लिए, इस छोटी उम्र में; किसी के लिए बेचने के गुर सिखाने वाली; तो किसी के लिए देशव्यापी ग़रीबी का एक और चेहरा | भारतीय रेल रोजाना अपने साथ ऐसे कई उदाहरण लिए घूमती है|

बुधवार, 7 सितंबर 2011

मैं शर्मिंदा हूँ,,,!!



रक्षा-बंधन पर घर जाने का मन बनाया| छुट्टियों की स्वीकृति भी मिल गयी और हम निकल पड़े घर की ओर| पटना-पुणे एक्सप्रेस मे आरक्षण महीने भर पहले से ही ले रखा था| सामान्यतः मध्यम आय-वर्ग के लोग रेल के वातानुकूलित डिब्बों में सफ़र कम ही करते हैं, फिर भी नौकरी लगने के बाद से इन वातानुकूलित डिब्बों से मोह थोड़ा बढ़ सा गया है| वैसे इस शौक का एक दूसरा पहलू यह भी है की सूचना प्रौद्द्योगिकि क्षेत्र, खर्च के मामले मे आपके हाथ कुछ ज़्यादा ही खोल देता है|

           चूँकि यह यात्रा बारिश के मौसम मे करनी थी और इस मौसम मे प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है, सो अपने शौक को बस्ते मे रख सामानय श्रेणी के आरक्षित डिब्बे मे ही सफ़र करने का निर्णय लिया| रात्रि ९ बजे ट्रेन ने पुणे स्थानक को अलविदा कह सफ़र की शुरुआत की| रात आराम से कटी| सुबह हुई तो महसूस किया कि डिब्बे में भीड़ बढ़ गयी थी| सामान्य श्रेणी के डिब्बों की यही कहानी है| कई लोग बिना आरक्षण के ही इन डिब्बों का रुख़ कर लेते हैं, परेशान मन बार-बार यह तर्क देकर खुद को समझा रहा था |

         जैसे जैसे दिन चढ़ा, गर्मी ने भी अपने पाँव पसारे| डिब्बे मे अन-चाही भीड़ आग मे घी का काम कर रही थी| मैं एका-एक इस डिब्बे मे मैं अपने आप को असहज महसूस करने लगा और अनचाहे ही सही पर अपने उस निर्णय को कोसने लगा जब सामान्य श्रेणी मे आरक्षण लिया था| कुछ देर बाद वरुण-देव ने अपनी महिमा देखाई और बारिश शुरू हो गयी | मौसम सुहावना हो गया| ठंडी और नम हवाओं के झोंके जब जब चेहरे छूते, सच आनंद आ जाता |

       पर ये क्या? इस सुहावाने मौसम ने भी डिब्बे के अंदर की मेरी असहजता कम नही की| निश्चित रूप से यह गर्मी नही कुछ और था, जो मुझे खटक रहा था| पर क्या? लोग? शायद! क्या सामान्य श्रेणी मे सफ़र करने वालों से ही मुझे परहेज हो गया? मैं भी तो इसी भीड़ का हिस्सा था, हूँ और रहूँगा| फिर ये असहजता कैसी? ईश्वर करे ऐसे विचार सिर्फ़ मेरे मन के वहम मात्र हों, भीड़ से उकताए मन की महज़ एक टीस| लेकिन अगर इन विचारो मे ज़रा सी सच्चाई है, गंभीरता है, तो सच-मुच, मैं शर्मिंदा हूँ |

रविवार, 17 जुलाई 2011

रक्तदान !!

बात लगभग दो वर्ष पुरानी है| तब मैं जबलपुर मे इंजिनियरिंग कॉलेज का छात्र था| मेरे बचपन के एक मित्र ने मुझे फोन पे बताया, कि उसके पिताजी की तबीयत काफ़ी खराब है और चिकित्सकों की सलाह पर वो उन्हे जबलपुर के ही एक चिकित्सालय मे लेकर आया है| उसी दिन शाम को मैं उससे मिला, पर उसके पिताजी से मिलने की हिम्मत सी नही हुई इसलिए सिर्फ़ मित्र से मिलकर वापस लौट आया| विपरीत परिस्थितियों मे दूसरों के प्रति मदद करने की इच्छा मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, पर मदद करने की समझ और क्षमता कम लोगों में होती है| समझ की कमी से मैं आज तक जूझ रहा हूँ|
              कॉलेज मे व्यस्तता और अपने आलस के कारण अगले दो-तीन दिनों तक मिलने नही जा पाया, सिर्फ़ फोन पर ही उनके स्वस्थ की जानकारी लेता रहा| हालत मे कुछ खास सुधार ना होता देख मैने उसे नागपुर जाने का सुझाव दिया, पर उसके पिताजी की बिगड़ी हालत के चलते ये भी मुमकिन नही हो पाया| मित्र ने बताया कि पिताजी को डायलिसिस पर रखा हैं और फिलहाल पाँच शीशी खून की ज़रूरत है| चिकित्सालय के रक्त-कोष मे यह रुधिर-वर्ग (ब्लड ग्रुप) उपलब्ध नही था| हम दोनो ने बहुत हाथ पाँव मारे, मित्रों और रिश्तेदारों से संपर्क किया, पर शाम तक सिर्फ़ दो शीशी खून ही उपलब्ध हो सका, जो नाकाफ़ी था| अगले दिन तक बाकी खून की व्यवस्था करनी थी पर समझ कम पड़ रही थी|
            एकाएक स्थानीय टी. व्ही. चैनलों और समाचार पत्रों मे विज्ञापन देने का विचार आया, पर तब तक रात के बारह बज गये थे| फिर भी अपने स्थानीय मित्रों को फ़ोन करके चैनलों और दैनिक भास्कर समाचार पत्र का फोन नंबर लिया| दैनिक भास्कर कार्यालय संपर्क किया तो उन्होने बताया की आज का  अख़बार छपने के लिए जा चुका है| पर कारण जानने के बाद उस भद्र व्यक्ति ने अख़बारों मे संशोधन करवाते हुए हमारा विज्ञापन छापा| मैने जब पैसों के बारे में जानना चाहा, तो उसने यह कहकर पैसे लेने से माना कर दिया कि ऐसी ज़रूरतों के लिए हम पैसे नही लेते| हम दोनो ने राहत की साँस ली| बस अब सुबह का इंतज़ार था| ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कब नींद आई, पता नहीं|
            सुबह फोने की घंटी से नींद टूटी| मित्र ने बताया, सुबह से कई लोगो के फ़ोन चुके हैं, मदद के लिए| ज़रूरी खून की व्यवस्था हो गयी है अब| मैने ईश्वर को धन्यवाद दिया और हाथ-मुँह धोकर, चिकित्सालय पहुँचा| मित्र ने बताया, किसी ने भी रक्तदान के लिए पैसे नही लिए| उनमें कुछ परीक्षार्थी थे, तो कुछ का नवरात्रि का नौ दीनो का व्रत चल रहा था| मन खुश था, कारण लिखना व्यर्थ होगा|
              मित्र पिताजी की हालत में सुधार आया और कुछ दिनों बाद ही वो घर वापस चले गये| आगे कुछ लिखना भावनाओं का दोहराव मात्र होगा, इसलिए इस आप-बीती को यहीं विराम देता हूँ|

शनिवार, 16 जुलाई 2011

एक नया कदम !!


पता नही क्यूँ, परंतु यह हिन्दी ब्लॉग शुरू करते हुए एक हर्ष का अनुभव हो रहा है| आप इसे हिन्दी भाषा के प्रति मेरा लगाव कह सकते हैं या मात्र अपने मन की भढ़ास निकालने का साधन| यह मैं आप पर छोड़ता हूँ, वैसे दूसरा विकल्प मेरी नज़र में ज़्यादा प्रबल दीख पड़ता है|
              कुछ दिनों पहले एक मित्र के ब्लॉग पर एक हिन्दी ब्लॉग का लिंक दिखा, शीर्षक था, "प्रायमरी का टीचर"| ब्लॉग की तुलना नही करूँगा, क्यूँकि मेरा मानना है कि तुलना व्यक्ति-विशेष के नज़रिए और पसंद-नापसंद पर निर्भर करती है| इस ब्लॉग के मध्यम से कुछ और  हिन्दी ब्लॉग्स पढ़ने का मौका मिला, और हिन्दी मे कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई|  उन ब्लॉग्स से हिन्दी मे लिखने की जो प्रेरणा मिली, यह ब्लॉग उसी का परिणाम है| आशा हैं, इस पर आपकी नज़रों का आशीष बरसता रहेगा|