बुधवार, 7 सितंबर 2011

मैं शर्मिंदा हूँ,,,!!



रक्षा-बंधन पर घर जाने का मन बनाया| छुट्टियों की स्वीकृति भी मिल गयी और हम निकल पड़े घर की ओर| पटना-पुणे एक्सप्रेस मे आरक्षण महीने भर पहले से ही ले रखा था| सामान्यतः मध्यम आय-वर्ग के लोग रेल के वातानुकूलित डिब्बों में सफ़र कम ही करते हैं, फिर भी नौकरी लगने के बाद से इन वातानुकूलित डिब्बों से मोह थोड़ा बढ़ सा गया है| वैसे इस शौक का एक दूसरा पहलू यह भी है की सूचना प्रौद्द्योगिकि क्षेत्र, खर्च के मामले मे आपके हाथ कुछ ज़्यादा ही खोल देता है|

           चूँकि यह यात्रा बारिश के मौसम मे करनी थी और इस मौसम मे प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है, सो अपने शौक को बस्ते मे रख सामानय श्रेणी के आरक्षित डिब्बे मे ही सफ़र करने का निर्णय लिया| रात्रि ९ बजे ट्रेन ने पुणे स्थानक को अलविदा कह सफ़र की शुरुआत की| रात आराम से कटी| सुबह हुई तो महसूस किया कि डिब्बे में भीड़ बढ़ गयी थी| सामान्य श्रेणी के डिब्बों की यही कहानी है| कई लोग बिना आरक्षण के ही इन डिब्बों का रुख़ कर लेते हैं, परेशान मन बार-बार यह तर्क देकर खुद को समझा रहा था |

         जैसे जैसे दिन चढ़ा, गर्मी ने भी अपने पाँव पसारे| डिब्बे मे अन-चाही भीड़ आग मे घी का काम कर रही थी| मैं एका-एक इस डिब्बे मे मैं अपने आप को असहज महसूस करने लगा और अनचाहे ही सही पर अपने उस निर्णय को कोसने लगा जब सामान्य श्रेणी मे आरक्षण लिया था| कुछ देर बाद वरुण-देव ने अपनी महिमा देखाई और बारिश शुरू हो गयी | मौसम सुहावना हो गया| ठंडी और नम हवाओं के झोंके जब जब चेहरे छूते, सच आनंद आ जाता |

       पर ये क्या? इस सुहावाने मौसम ने भी डिब्बे के अंदर की मेरी असहजता कम नही की| निश्चित रूप से यह गर्मी नही कुछ और था, जो मुझे खटक रहा था| पर क्या? लोग? शायद! क्या सामान्य श्रेणी मे सफ़र करने वालों से ही मुझे परहेज हो गया? मैं भी तो इसी भीड़ का हिस्सा था, हूँ और रहूँगा| फिर ये असहजता कैसी? ईश्वर करे ऐसे विचार सिर्फ़ मेरे मन के वहम मात्र हों, भीड़ से उकताए मन की महज़ एक टीस| लेकिन अगर इन विचारो मे ज़रा सी सच्चाई है, गंभीरता है, तो सच-मुच, मैं शर्मिंदा हूँ |

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