रविवार, 17 जुलाई 2011

रक्तदान !!

बात लगभग दो वर्ष पुरानी है| तब मैं जबलपुर मे इंजिनियरिंग कॉलेज का छात्र था| मेरे बचपन के एक मित्र ने मुझे फोन पे बताया, कि उसके पिताजी की तबीयत काफ़ी खराब है और चिकित्सकों की सलाह पर वो उन्हे जबलपुर के ही एक चिकित्सालय मे लेकर आया है| उसी दिन शाम को मैं उससे मिला, पर उसके पिताजी से मिलने की हिम्मत सी नही हुई इसलिए सिर्फ़ मित्र से मिलकर वापस लौट आया| विपरीत परिस्थितियों मे दूसरों के प्रति मदद करने की इच्छा मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है, पर मदद करने की समझ और क्षमता कम लोगों में होती है| समझ की कमी से मैं आज तक जूझ रहा हूँ|
              कॉलेज मे व्यस्तता और अपने आलस के कारण अगले दो-तीन दिनों तक मिलने नही जा पाया, सिर्फ़ फोन पर ही उनके स्वस्थ की जानकारी लेता रहा| हालत मे कुछ खास सुधार ना होता देख मैने उसे नागपुर जाने का सुझाव दिया, पर उसके पिताजी की बिगड़ी हालत के चलते ये भी मुमकिन नही हो पाया| मित्र ने बताया कि पिताजी को डायलिसिस पर रखा हैं और फिलहाल पाँच शीशी खून की ज़रूरत है| चिकित्सालय के रक्त-कोष मे यह रुधिर-वर्ग (ब्लड ग्रुप) उपलब्ध नही था| हम दोनो ने बहुत हाथ पाँव मारे, मित्रों और रिश्तेदारों से संपर्क किया, पर शाम तक सिर्फ़ दो शीशी खून ही उपलब्ध हो सका, जो नाकाफ़ी था| अगले दिन तक बाकी खून की व्यवस्था करनी थी पर समझ कम पड़ रही थी|
            एकाएक स्थानीय टी. व्ही. चैनलों और समाचार पत्रों मे विज्ञापन देने का विचार आया, पर तब तक रात के बारह बज गये थे| फिर भी अपने स्थानीय मित्रों को फ़ोन करके चैनलों और दैनिक भास्कर समाचार पत्र का फोन नंबर लिया| दैनिक भास्कर कार्यालय संपर्क किया तो उन्होने बताया की आज का  अख़बार छपने के लिए जा चुका है| पर कारण जानने के बाद उस भद्र व्यक्ति ने अख़बारों मे संशोधन करवाते हुए हमारा विज्ञापन छापा| मैने जब पैसों के बारे में जानना चाहा, तो उसने यह कहकर पैसे लेने से माना कर दिया कि ऐसी ज़रूरतों के लिए हम पैसे नही लेते| हम दोनो ने राहत की साँस ली| बस अब सुबह का इंतज़ार था| ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कब नींद आई, पता नहीं|
            सुबह फोने की घंटी से नींद टूटी| मित्र ने बताया, सुबह से कई लोगो के फ़ोन चुके हैं, मदद के लिए| ज़रूरी खून की व्यवस्था हो गयी है अब| मैने ईश्वर को धन्यवाद दिया और हाथ-मुँह धोकर, चिकित्सालय पहुँचा| मित्र ने बताया, किसी ने भी रक्तदान के लिए पैसे नही लिए| उनमें कुछ परीक्षार्थी थे, तो कुछ का नवरात्रि का नौ दीनो का व्रत चल रहा था| मन खुश था, कारण लिखना व्यर्थ होगा|
              मित्र पिताजी की हालत में सुधार आया और कुछ दिनों बाद ही वो घर वापस चले गये| आगे कुछ लिखना भावनाओं का दोहराव मात्र होगा, इसलिए इस आप-बीती को यहीं विराम देता हूँ|

शनिवार, 16 जुलाई 2011

एक नया कदम !!


पता नही क्यूँ, परंतु यह हिन्दी ब्लॉग शुरू करते हुए एक हर्ष का अनुभव हो रहा है| आप इसे हिन्दी भाषा के प्रति मेरा लगाव कह सकते हैं या मात्र अपने मन की भढ़ास निकालने का साधन| यह मैं आप पर छोड़ता हूँ, वैसे दूसरा विकल्प मेरी नज़र में ज़्यादा प्रबल दीख पड़ता है|
              कुछ दिनों पहले एक मित्र के ब्लॉग पर एक हिन्दी ब्लॉग का लिंक दिखा, शीर्षक था, "प्रायमरी का टीचर"| ब्लॉग की तुलना नही करूँगा, क्यूँकि मेरा मानना है कि तुलना व्यक्ति-विशेष के नज़रिए और पसंद-नापसंद पर निर्भर करती है| इस ब्लॉग के मध्यम से कुछ और  हिन्दी ब्लॉग्स पढ़ने का मौका मिला, और हिन्दी मे कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई|  उन ब्लॉग्स से हिन्दी मे लिखने की जो प्रेरणा मिली, यह ब्लॉग उसी का परिणाम है| आशा हैं, इस पर आपकी नज़रों का आशीष बरसता रहेगा|