शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

एक तमाशबीन लड़की,,,!!




यह वाक़या भी उसी रेल यात्रा  से जुड़ा है , जिसका ज़िक्र मैने अपने पिछ्ले लेख में किया था | कुछ निज़ी काम से मुझे अपनी इस यात्रा को जबलपुर मे अल्प-विराम देना पड़ा| जल्द ही काम निपटा कर मैने घर की राह ली | जो पहली ट्रेन दिखी, उसी को पकड़ लिया | इस बार अनारक्षित श्रेणी का रुख़ किया | चूँकि जबलपुर से सतना का सफ़र महज़ तीन घंटो का था और मुझे इसकी आदत कॉलेज के दिनों से है इसलिए आरक्षण ज़रूरी नही समझा | कभी-कभी ट्रेन के दरवाज़ो पे खड़े होकर सफ़र करने का भी अपना ही आनंद है, जो आरक्षित सीट पर लेटे-लेटे नही आ सकता (यह मेरी व्यक्तिगत सोच है | असल में ट्रेन के दरवाज़े पे खड़े होकर सफ़र करना अत्यंत जोखिम-पूर्ण और गैर-क़ानूनी है| ऐसा करने से बचें!)| ट्रेन मे भीड़ काफ़ी थी, सो बैठने की जगह मिलने का सवाल ही नहीं था | मैने दरवाज़े के सामने खड़ा रहना ही उचित समझा | थोड़ी ही देर मे तेज़ बारिश शुरू हो गई, जिसका पानी दरवाज़ों से होता हुआ अंदर आ रहा था | लोगो के बार-बार कहने पे, मुझे ट्रेन का दरवाज़ा बंद करना पड़ा | 

        अब खड़ा रहना तकलीफ़ दे रहा था | अपना वज़न एक-एक कर दोनो पैरो पे डाल रहा था | एक समय पर एक ही पैर पे वज़न रखने से, दूसरे पैर को आराम मिलता है, और सफ़र सरल होता है | यह तरकीब एक ज़रूरत बन जाती है जब ट्रेन मे बैठने की जगह मिलना तकरीबन असंभव हो | ख़ैर, नज़रे तो डिब्बे का मुआयना करने मे व्यस्त थीं | तकलीफ़ पैरों को थी, दर्द पैरों को था, लेकिन उतनी ही झटपटाहट आँखो मे भी थी | आह! कितना सच्चा और अटूट रिश्ता | प्रार्थना करता हूँ जीवन मे सभी को ऐसा हमसफर मिले, जो उनका दर्द, उनकी भावनायें इसी तरह समझें |
जगह की तलाश मे व्यस्त नज़रें एक जगह जा कर रुकीं, जहाँ लोग कुछ देखने के लिए एकत्रित हो रहे थे | दूर से कुछ ख़ास समझ तो नही आ रहा था, पर लोगों की तालियों और अट्टहास से ऐसा लग रहा था, मानों कोई तमाशबीन लड़की, अपने करतब दिखा रही हो |
           बारिश थम चुकी थी, और मेरा ध्यान फिर से प्रकृति की सुंदरता देखने मे मग्न हो गया | कुछ देर बाद कान मे एक आवाज़ पड़ी, "दस रूपिया में एक कुनटल(quintal) चना लो भाई|" देखा तो यह वही लड़की थी, जिसे थोड़ी देर पहले तक मैं कोई तमाशबीन समझ रहा था | यही कोई दस-ग्यारह वर्ष की उम्र, सर पे बड़ी सी टोकनी, उसमें भीगे हुए चने, हरी मिर्च, प्याज़, टमाटर, नमक, कुछ पुराने अख़बार और प्याज़-टमाटर काटने वाला चाकू | कुछ लोगों ने चने खरीदे भी, लेकिन सिर्फ़ कुछ ही लोगों ने | जब उसे लगा कि और लोग नहीं लेंगे, तो पास बैठे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से बोली," काकू, चना लो ना! अरे, मत देना पैसा और क्या, पर भूखे ना रहो |" अपने तरह तरह के व्यंगों से वो लोगो को मानती रही, या यह कहें कि उन्हें तमाशा बनाने का ख़ौफ़ दिखती रही और चने बेचती रही | किसी ने मन से लिया, किसी ने अपने तमाशा बनने के डर से | उसे अपने ग्राहकों की भी खूब पहचान थी| तभी तो उसने सिर्फ़ बैठे हुए लोगो को ही निशाना बनाया | उस डिब्बे से निकालने को हुई, तो बीच रास्ते मे कुछ ग़रीब बुज़ुर्ग लोग नीचे बैठे थे | उसने उनसे रास्ता देना का आग्रह किया, तो उन्होने ने साफ़ माना कर दिया | लड़की उनके ऊपर पाँव रखते हुए, अपनी राह बनाते हुए, आगे निकल गयी | रही बात मेरी, तो चूँकि मैं अलग खड़ा था, अतः पूरी कहानी में मैंनें मात्र एक मूक दर्शक की भूमिका निभाई |
वह तमाशबीन लड़की कई चीज़ों का उदाहरण है | अलग लोग, अलग नज़रिया | किसी के लिए साहस की प्रतिमूर्ति, जो भारी ट्रेन मे अकेले चने बेचती है, घर चलाने क लिए, इस छोटी उम्र में; किसी के लिए बेचने के गुर सिखाने वाली; तो किसी के लिए देशव्यापी ग़रीबी का एक और चेहरा | भारतीय रेल रोजाना अपने साथ ऐसे कई उदाहरण लिए घूमती है|

बुधवार, 7 सितंबर 2011

मैं शर्मिंदा हूँ,,,!!



रक्षा-बंधन पर घर जाने का मन बनाया| छुट्टियों की स्वीकृति भी मिल गयी और हम निकल पड़े घर की ओर| पटना-पुणे एक्सप्रेस मे आरक्षण महीने भर पहले से ही ले रखा था| सामान्यतः मध्यम आय-वर्ग के लोग रेल के वातानुकूलित डिब्बों में सफ़र कम ही करते हैं, फिर भी नौकरी लगने के बाद से इन वातानुकूलित डिब्बों से मोह थोड़ा बढ़ सा गया है| वैसे इस शौक का एक दूसरा पहलू यह भी है की सूचना प्रौद्द्योगिकि क्षेत्र, खर्च के मामले मे आपके हाथ कुछ ज़्यादा ही खोल देता है|

           चूँकि यह यात्रा बारिश के मौसम मे करनी थी और इस मौसम मे प्रकृति की सुंदरता देखते ही बनती है, सो अपने शौक को बस्ते मे रख सामानय श्रेणी के आरक्षित डिब्बे मे ही सफ़र करने का निर्णय लिया| रात्रि ९ बजे ट्रेन ने पुणे स्थानक को अलविदा कह सफ़र की शुरुआत की| रात आराम से कटी| सुबह हुई तो महसूस किया कि डिब्बे में भीड़ बढ़ गयी थी| सामान्य श्रेणी के डिब्बों की यही कहानी है| कई लोग बिना आरक्षण के ही इन डिब्बों का रुख़ कर लेते हैं, परेशान मन बार-बार यह तर्क देकर खुद को समझा रहा था |

         जैसे जैसे दिन चढ़ा, गर्मी ने भी अपने पाँव पसारे| डिब्बे मे अन-चाही भीड़ आग मे घी का काम कर रही थी| मैं एका-एक इस डिब्बे मे मैं अपने आप को असहज महसूस करने लगा और अनचाहे ही सही पर अपने उस निर्णय को कोसने लगा जब सामान्य श्रेणी मे आरक्षण लिया था| कुछ देर बाद वरुण-देव ने अपनी महिमा देखाई और बारिश शुरू हो गयी | मौसम सुहावना हो गया| ठंडी और नम हवाओं के झोंके जब जब चेहरे छूते, सच आनंद आ जाता |

       पर ये क्या? इस सुहावाने मौसम ने भी डिब्बे के अंदर की मेरी असहजता कम नही की| निश्चित रूप से यह गर्मी नही कुछ और था, जो मुझे खटक रहा था| पर क्या? लोग? शायद! क्या सामान्य श्रेणी मे सफ़र करने वालों से ही मुझे परहेज हो गया? मैं भी तो इसी भीड़ का हिस्सा था, हूँ और रहूँगा| फिर ये असहजता कैसी? ईश्वर करे ऐसे विचार सिर्फ़ मेरे मन के वहम मात्र हों, भीड़ से उकताए मन की महज़ एक टीस| लेकिन अगर इन विचारो मे ज़रा सी सच्चाई है, गंभीरता है, तो सच-मुच, मैं शर्मिंदा हूँ |